भील कौन है?
भील जनजाति भारत की सबसे प्राचीनतम जनजातियों में से एक है जिनका उल्लेख रामायण और महाभारत जैसे महाकाव्यों में हुआ है।
धनुष–बाण इनके लिए खिलौने हुआ करते थे इन्होंने राजपूतों के साथ मिलकर मुगलों से लोहा लिया है। देश की आज़ादी के लिए सन् 1857 की क्रांति में अंग्रेजों से लोहा लिया है।
भील आदिवासियों का निवास स्थान
भील लोगों का मुख्य निवास स्थान राजस्थान, गुजरात और मध्यप्रदेश है इसके अलावा ये छत्तीसगढ़ और महाराष्ट्र के इलाकों में भी फैले हुए हैं।
अरावली से इनका गहरा नाता है इसके अलावा ये पाकिस्तान के सिंध प्रांत में भी रहते हैं।
साल 2011 के जनगणना के अनुसार इनकी जनसंख्या डेढ़ करोड़ से भी ज्यादा है।
यह मध्यप्रदेश की सबसे बड़ी जनजाति है और यहां के झाबुआ जिले में इनकी जनसंख्या सबसे ज्यादा है।
भील जनजाति की भाषा एवं जाति समूह
भील को द्रविड मूल की जनजाति मानी जाती है, भील शब्द की उत्पत्ति द्रविड मूल के बील शब्द से हुई है जिसका अर्थ तीर कमान होता है।
इनकी भाषा भीली है।
भीलों की उपजातियों में भील, भिलाला, बारेला, पटालिया, बेगास, उमड़ी और तड़वी है।
भीलों की शारीरिक बनावट तथा पहनावा
भील लोग मध्यम ऊंचाई के होते हैं, इनका रंग सांवला या गौरवर्णी होता हैं।
यह एक श्रृंगार प्रिय जनजाति है जिन्हे तेज रंग के कपड़े और गहने पहनना खूब पसंद होता हैं, सोने के स्थान पर चांदी के गहने पहनना ज्यादा पसंद करते है।
महिलाएं गहरे रंग की साड़ी पहनती है जिसे सिंदूरी कहते हैं, घाघरा और ओढ़नी इनकी पहचान है। इनके पैरों में जूतियां कानों में बालियां और उंगलियों में अंगूठियां होती है इन्हें गोदना गुदवाना पसंद होता हैं।
पुरुष धोती पहनते हैं और सिर पर साफा बांधते हैं। धोती को ये लोग थेपड़ा कहते हैं और साफा को पोत्या।
पोटिया वाला भील कम कपड़े पहनते हैं, लंगोटिया भील लंगोटी पहनते हैं जिसे खोयतू कहते हैं।
धोती और कमीज़ के साथ ये पगड़ी पहनते हैं, पगड़ी इन्हे सर्दी और गर्मी से बचाती है, साथ ही यह सम्मान का भी प्रतीक है।
भीलों का रहन–सहन और आर्थिक जीवन
भीलों के घर मिट्टी के बने होते हैं, बांस और खपरैल की इनकी छत होती है।
आजीविका के लिए ये परंपरागत कृषि करते हैं, इसके अलावा ये पशुपालन, पशुचारण और वनोपज इकठ्ठा करने का काम करते हैं। काम के खोज में ये प्रवास भी करते हैं।
भील आदिवासियों की सामाजिक व्यवस्था
भील जनजाति उप–जनजातियों में बटी हुई है, इनकी उप जनजातियों में भील, भिलाला, बारेला, पटालिया, बेगास, उमड़ी और तड़वी प्रमुख है।
इनमें पितृसत्तात्मक सामाजिक व्यवस्था है, इनके गांव के मुखिया को गमेती कहते हैं।
T.B. Nair ने भील जनजाति के उपर ‘The Bheel' नामक किताब लिखी है।
कर्नल जेम्स टॉड ने इन्हें vanputra कहा है।
भील जनजाति में जन्म–संस्कार
राजस्थान में भील के घर पुत्र जन्म होने पर थाली या फिर ढोल बजाकर सूचना दिया जाता है और पुत्री जन्म होने पर सूपा बजाकर सूचना दिया जाता है।
भील लोग प्रसव को जापा कहते हैं और जन्म को जलय। यहां बच्चे के जन्म होने पर पासना पूजा किया जाता है।
भील जनजाति में विवाह संस्कार
सगाई के दौरान वधु वर पक्ष द्वारा लाए गए वस्त्रों को पहनती है, विवाह के दौरान वधु जो वस्त्र पहनती है उसे पीरिया कहते हैं।
इनमें वधुमूल्य प्रचलित है, विवाह के दौरान वर पक्ष दहेज़ देते हैं। अगर किसी कारणवश वर पक्ष दहेज़ देने में असमर्थ हो तो उस स्थिती में बसत करते हैं। बसत के दौरान वर पक्ष के रिश्तेदार दहेज़ देने में वर पक्ष की सहायता करते हैं।
ये लोग वर–वधु को लाडा–लाडी कहते हैं। बारात के लिए प्रस्थान करने के बाद गांव की सीमा के पास सीमा को पार करने से पहले ये काकड़ पूजा की रस्म करते हैं।
बारात जब कन्या के गांव के पास पहुंचती है तो गांव की सीमा में प्रवेश करने से पहले कुछ देर विश्राम के लिए रुकती है। इस परंपरा को विंद गोट कहते हैं।
विवाह के दौरान वधु पक्ष के रिश्तेदार वर–वधु को भेंट देते हैं, इसे धर्मिणू प्रथा कहते हैं।
विवाह में पूरा गांव शामिल होता है और समाज के लोगों के सहयोग से पूरे रीति–रिवाज के साथ धूमधाम से विवाह सम्पन्न होता है।
भील समाज में बाल विवाह वर्जित है, कुछ नियमों के साथ विधवा विवाह हो सकता है, देवर के साथ पुनर्विवाह हो सकता है लेकिन जेठ के साथ नहीं।
भील जनजाति में मृत्यु संस्कार
भील समाज के लोग अंतिम संस्कार को पूरे रीति–रिवाज़ से करते है।
भीलों में दाह संस्कार करने की प्रथा है, बहुत कम ही केस में दफनाते हैं।
इनमें मृतक के सिरहाने पर आटे की गोलियां रखी जाती है, इस रस्म को कांची कूलर कहते हैं। इस रस्म के पिछे यह मान्यता है की ‘यह मृतक के आत्मा को लगाए जानें वाला भोग है’।
भील जनजाति में मृत्यु भोज को घाट मोसर कहा जाता हैं और परंपरा के अनुसार घाट मोसर के बाद मांस और मदिरा का सेवन किया जा सकता है।
भिलाला और बारेला समुदाय में श्राद्ध की परंपरा है।
भील समाज में स्त्रियों की स्थिती
महिलाएं घर का पुरा काम संभालती है साथ ही घर के बाहर पुरुषों का भी हाथ बटाती है। हल जुताई का काम छोड़ कृषि के बाकी सभी काम महिलाएं कर लेती हैं, ये मवेशियों को भी चराती है लकड़ियां भी इकठ्ठा करती है। कुल मिलाकर इनका जीवन परिश्रम से भरा हुआ होता है।
भील जनजाति के नृत्य और संगीत
भीलों में बहुत सी नृत्य शैलियां है जिनमें गवरी नृत्य बहुत ही प्रसिद्ध है। इसके अलावा लाठी नृत्य, गैर नृत्य, द्विचकी नृत्य, हाथीमना नृत्य, घुमरा नृत्य, ढोल नृत्य, विवाह नृत्य, होली नृत्य, युद्ध नृत्य, भगोरिया नृत्य, दीपावली नृत्य और शिकार नृत्य इत्यादि हैं।
इनके वाद्ययंत्रों में हारमोनियम , सारंगी , कुंडी, बाँसुरी , अपांग, खजरिया, तबला , जे हंझ , मंडल और थाली इत्यादि हैं।
पिथौरा कला इनका विश्वप्रसिद्ध चित्रकला शैली है।
भीलों के आयोजन एवं उत्सव
• भगोरिया मेला/हाट
मध्यप्रदेश के पश्चिमी हिस्से में भीलों के द्वारा भगोरिया मेले का आयोजन किया जाता है।
यह कार्यक्रम सात दिनों का होता है और होली वाले दिन युवक–युवतियां हाथों में गुलाल लेकर निकलते हैं। इस दौरान अगर कोई युवक किसी युवती को गुलाल लगा देता है तो यह माना जाता है की वह युवक उस युवती से विवाह करना चाहता है। अगर बदले में युवती भी उस युवक को गुलाल लगा देती है तो यह माना जाता है की दोनो ने एक दूसरे को पसंद कर लिया है। फिर वो दोनो मेले से भाग जाते हैं और बाद में उनके घर वाले उनकी शादी करा देते हैं। अगर बदले में युवती गुलाल नही लगाती तो युवक आगे बढ़ जाते हैं।
• गोल गंधेड़ो
गोल गधेड़ो उत्सव एक आयोजन है जिसमें लकड़ी के एक खंभे में गुड़ बंधा होता है, लड़कों का एक समूह उस गुड़ को निकालने के लिए खंभे में चढ़ने की कोशिश करता है। लड़कियो का समूह हाथ में बांस की पतली डंडी लेकर नृत्य करते हुए आती हैं और लडको को डंडे से मारकर खंभे में चढ़ने से रोकती है। प्रतिद्वंदी लड़के भी चढ़ रहे लड़कों को नीचे खींचने की कोशिश करते हैं और इस पुरे खेल में जो लड़का उस खंभे में चढ़कर गुड़ को निकाल लेता है, वह उस समूह के किसी भी लड़की से शादी कर सकता है।
भील जनजाति के लोगों के देवी–देवता
भील प्रकृति पूजक है ये वृक्षों, नदियों, जंगलों और पहाड़ों को विभिन्न देवी–देवताओं के रूप में पूजते हैं।
यह एक धार्मिक जनजाति है, इनके प्रमुख देवी–देवताओं में राजा पाठा और भीया देवी सर्वशक्तिमान हैं।
होलिका को जोगन माता मानते हैं और होली धूमधाम से मनाते हैं।
भील जनजाति में अंधविश्वास
भील अत्यंत धार्मिक हैं, देवी–देवताओं से मन्नते मांगते हैं और इसके लिए बलि भी देते हैं।
ये लोग पुनर्जन्म पर विश्वास रखते हैं।
गांव में पूजा–पाठ और झाड़–फूंक करने वाले को भोपा कहते हैं। यह एक सम्मानजनक पद है, मृत्यु के उपरांत भोपा की मूर्ति बनाकर स्थापित की जाती है।
वनौषधियों और जड़ी–बूटियों से ईलाज करने वाले को पूजारो कहते हैं।
भीलों का प्राचीन इतिहास
रामायण और महाभारत जैसे महाग्रंथों में भी भीलों का उल्लेख हुआ है। रामायण के रचयिता महर्षि वाल्मीकि पहले वालिया नामक भील हुआ करते थे, माता शबरी भी एक भीलनी थी।
महाभारत काल में एकलव्य एक भील थे।
भीलों का राजपूतों के साथ संबंध
भीलों का राजपूतों के साथ सदियों पुराना संबंध है, इनके बीच दोस्ती भी रही है और दुश्मनी थी रही है।
राजपूत राज्य के नीव रखने वाले बप्पा रावल जी का लालन–पालन भीलों ने ही किया है, महाराणा प्रताप जी के बुरे समय में भीलों ने ही उन्हें संरक्षण दिया है। महाराणा प्रताप जी के बचपन में भील इन्हे कीका कहकर पुकारते थे।
भील गोरिल्ला युद्ध नीति में पारंगत थे, राजपूतों के साथ मिलकर इन्होनें मुगलों के खिलाफ युद्ध लड़ा है।
सन् 1856 के हल्दीघाटी युद्ध में भील सरदार वीर राणा पूंजा भील ने मुगलों के खिलाफ महाराणा प्रताप जी का साथ दिया है। जिस कारण मेवाड़ के राजध्वज में भीलों का प्रतीक चिन्ह है, राजध्वज में एक तरफ राणा हैं तो दुसरे तरफ भील।
मेवाड़ में भील के खून से राजतिलक करने की परंपरा है, भील व्यक्ति अपने खून से होने वाले राजा का राजतिलक करता है।
भीलों में बहुत से पराक्रमी सरदार भी हुए हैं जिन्होंने राजस्थान के बहुत से हिस्सों में राजा की तरह राज किया है, इन्हीं के नामों पर बड़े–बड़े शहरों और कस्बों का नाम रखा गया है जैसे– कोटिया सरदार के नाम पर कोटा, बांसिया सरदार के नाम पर बांसवाड़ा, डोंगरिया सरदार के नाम पर डूंगरपुर आदि के नाम पड़े है।
सन 1857 की क्रांति में भीलों का योगदान
सन् 1857 की क्रांति में भीलों का सक्रीय रूप से योगदान रहा है। जिसमें मामा टंट्या भील और शहीद भीमा नायक जी का नाम प्रमुख है।
• मामा टंट्या भील
मामा टंट्या भील ने महज़ 15 वर्ष की आयु में अंग्रेजो के खिलाफ़ हो रहे विद्रोह में भाग लिया था, इन्हे इंडियन रॉबिनहुड के नाम से जाना जाता है। ये आम जनता के साथ हो रहे शोषण और अत्याचार के खिलाफ़ विद्रोह में शामिल हुए थे। सन् 1889में इन्हे फांसी दे दी गई।
• शहीद भीमा नायक
शहीद भीमा नायक को निमाड़ का रॉबिनहूड कहा जाता है। इन्होंने खरगोन जिले के मंडलेश्वर से क्रांति का आगाज किया था।
इन्हे कालापानी की सजा दी गई, 29 दिसंबर 1876 को पोर्ट ब्लेयर में इनकी मृत्यु हो गई।
भीलों का जनसंहार
जलियांवाला बाग जनसंहार को तो हर कोई जानता है लेकीन ऐसा ही जनसंहार इतिहास में भीलों के साथ भी हुआ है, दुर्भाग्यवश बहुत कम लोग ही इसे जानते हैं।
आईए इस बारे में जानते हैं–
मानगढ़ पहाड़ी भीलों के लिए खासा महत्व रखती है, यहां पर गोविंद गुरु की धुनी है और यहीं पर लगभग 1500 से भी ज्यादा लोगों को घेरकर मार दिया गया था।
गोविंद गुरु मूलतः बंजारा समाज के व्यक्ति थे, इन्हे समाज सुधारक के रूप में जाना जाता है। इन्होंने भील समाज के लोगों के सुधार के लिए काम किया है।
भील जनजाति के लोग राजाओं, जमींदारों और अंग्रेज़ो के अत्याचारों से परेशान थे, जिस कारण ये लोग इनके खिलाफ़ बगावती रुख अख्तियार कर लिए थे।
इसी दौरान 17 नवंबर 1913 के दिन मानगढ़ पहाड़ी पर एक आयोजन रखा गया था जिसमें हजारों की संख्या में लोग उपस्थित थे। इस बात की भनक राजाओं और अंग्रेज़ो को पड़ गई, इन्होंने मानगढ़ पहाड़ी को चारो तरफ से घेर लिया और गोलाबारी करना शुरु कर दिया, तोप के गोले दागे गए। पहाड़ी में भगदड़ मच गई बच्चे, बूढ़े, औरतें किसी को भी नहीं बक्शा जा रहा था। इस जनसंहार में 1500 से भी ज्यादा लोगों के मारे जाने की बात सामने आती है।
भीलों में इस बात का आक्रोश है कि इनके इतिहास को ठीक से संजोया नहीं गया।
भील जनजाति के लोगों की समस्याएं
इनकी जनसंख्या बढ़ रही है और प्रतिव्यक्ति आय कम हो रही है जिस कारण परिवार को चलाने के लिए प्रवास भी करना पड़ता है।
प्रवास के कारण बच्चों की शिक्षा प्रभावित होती है।
कृषि के लिए बारिश पर निर्भर रहना पड़ता है, शासकीय योजनाएं हैं लेकिन उनका सही से लाभ नही मिल पाता है।
बाहर से आए मिशनरी आदिवासियों पर बाहरी संस्कृति थोपना चाहते हैं, यह भी एक समस्या है।