बस्तर का काकतीय वंश–छत्तीसगढ़ का एक क्षेत्रिय राजवंश

 काकतीय वंश छत्तीसगढ़ का एक क्षेत्रिय राजवंश है जिन्होंने बस्तर क्षेत्र में 1324ई. से 1948ई. तक लगभग 624 वर्षों तक राज किया है। इनके वंशज आज भी जगदलपुर के राजमहल में निवास करते हैं और बस्तर की जनता आज भी इन्हें अपना राजा मानती है।                                                                                   
बस्तर का काकतीय वंश–छत्तीसगढ़ का एक क्षेत्रिय राजवंश

इनके बारे में कहा जाता है कि "काकतीय मूलतः चालुक्य थे" ऐसा इसलिए क्योंकि बस्तर पर काकतीय वंश की नीव रखने वाले अन्नमदेव मूलतः चालुक्य वंश के थे और वो वारंगल के काकतीय राजगद्दी का प्रतिनिधित्व करते हुए बस्तर आए थे। इस संदर्भ में आगे हम और गहराई से जानेंगे, फिलहाल इस वंश की स्थापना के बारे में जानते हैं।


काकतीय वंश की स्थापना एवं राजधानी

 प्रतापरुद्र देव की तुगलकों के हाथों हार के बाद काकतीय राजगद्दी को बचाने के लिए इनके भाई अन्नमदेव बस्तर की ओर बढ़ने लगे लेकिन यहां पर पहले से छिंदक नागवंश का शासन था। इसलिए यहां पर शासन स्थापित करने के लिए इनको छिंदक नागवंश के शासक हरीशचन्द्र देव और उनकी पुत्री चमेली देवी के साथ युद्ध करना पड़ा, इस युद्ध में हरीशचंद्र की हार हुई और वो छिंदक कुल के अंतिम शासक साबित हुए। इस प्रकार से 1324ई. मे यहां काकतीय वंश की स्थापना हुई।

अब राजधानी की बात करें तो छिंदको के समय यहां की राजधानी बारसूर (चक्रकोट) थी, काकतियों ने अपनी प्रारंभिक राजधानी राजधानी मंधोता को बनाया लेकिन पुरुषोत्तम देव ने जब शासन सम्हाली तब उन्होंने राजधानी को मंधोता से बदलकर बस्तर (जगदलपुर/राजपुर) ले आए, और तब से लेकर आज तक इनकी राजधानी जगदलपुर (राजपुर) है।


काकतीय वंश के शासकों की सूची

• बस्तर के काकतीय वंश के शासकों की सूची–

1. अन्नमदेव (1324ई. से 1369ई.) (संस्थापक)

2. हमीर देव (1369ई. से 1410ई.)

3. भैरव देव (1410ई. से 1468ई.)

4. पुरुषोत्तम देव (1468ई. से 1534ई.)

5. जयसिंह देव (1534ई. से 1558ई.)

6. नरसिंह देव (1558ई. से 1602ई.)

7. प्रतापराज देव (1602ई. से 1625ई.)

8. जगदीशराज देव (1625ई. से 1639ई.)

9. वीरनारायण देव (1639ई. से 1654ई.)

10. वीरसिंह देव (1654ई. से 1680ई.)

11. दिकपाल देव (1680ई. से 1709ई.)

12. राजपाल देव (1709ई. से 1721ई.)

13. चंदेल मामा (1721ई. से 1731ई.) (दूसरे वंश का शासक)

14. दलपत देव (1731ई. से 1774ई.)

15. अजमेर सिंह (1774ई. से 1777ई.)

भोंसले शासकों के अधीन शासक –

16. दरियाव देव (1777ई. से 1800ई.)

18. महिपाल देव (1800ई. से 1842ई.)

19. भूपाल देव (1842ई. से 1853ई.)

अंग्रजों के अधीन शासक –

20. भैरम देव (1853ई. से 1891ई.)

21. रुद्रप्रताप देव (1891ई. से 1921ई.)

22. प्रफुल्ल कुमारी देवी (1921ई. से 1936ई.) (छ. ग. की प्रथम महिला शासिका)

23. प्रवीरचंद्र भंजदेव (1936ई. से 1961ई.) (सबसे लोकप्रिय शासक)

बस्तर रियासत का भारत संघ में विलय के बाद के शासक –

24. विजयचंद्र भंजदेव (1961ई. से 1969ई.)

25. भरतचंद्र भंजदेव (1969ई. से 1996ई.)

26. कमलचंद्र भंजदेव (1996ई. से अब तक)

नोट – रियासतों के विलय होने के बाद राजाओं के पास अपने राज्य के लिए स्वतंत्र रुप से निर्णय लेने की शक्तियां नहीं बची थी, वे महज राजमहल के राजा रह गए थे।


काकतीय वंश के प्रमुख शासक 

• अन्नमदेव –

 अन्नमदेव बस्तर में काकतीय वंश के संस्थापक थे, 1324ई. मे हरीशचंद्र देव को हराकर इन्होंने काकतीय वंश की नीव रखी और मंधोता को अपनी राजधानी बनाई। हालाकि इनकी राजधानी बदलती रही है, इनकी पहली राजधानी बारसूर थी इसके बाद दंतेवाड़ा, मंधोता, कुरुसपाल, राजपुर, बड़े डोंगर और कुछ समय के लिए बस्तर भी रही है।

 इन्होंने तराला नामक गांव में डंकिनी और शंकिनी नदी के संगम पर मां दंतेश्वरी का मंदिर बनवाया बाद में यह क्षेत्र दंतेवाड़ा के नाम से जानें जाना लगा।

बताया जाता है की इनकी पत्नि का नाम सोन कुंवर चंदेलीन था। बस्तर के लोकगीतों में इन्हें चालकीय वंश (चालुक्य वंश) का राजा बताया गया है।

• पुरुषोत्तम देव – 

इनके बारे में बताया जाता है कि ये पेट के बल लेटते हुए जगन्नाथपुरी यात्रा पर गए थे। जब पुरी के शासक को इस बारे में पता चला तो उन्होंने इनकी यात्रा पूर्ण होने के बाद इनका भव्य स्वागत किया और उपहार स्वरूप 16 चक्कों वाला रथ भेंट किया तथा इन्हे रथपति की उपाधि दी। कहते हैं की पुरुषोत्तम देव इसी रथ पर सवार होकर वापस बस्तर गए।

इन्होंने ही काकतीय वंश की पुरानी राजधानी मंधोता को बदलकर बस्तर को अपनी नई राजधानी बनाई। इन्होंने ही बस्तर में रथयात्रा (गोंचा पर्व) और बस्तर दशहरे की शुरुआत की।

• जयसिंह देव – 

इन्होंने अपने राज्य को परगणों में विभाजित किया, इनके परगणों के प्रधान को चालकी मांझी कहा जाता था। इनका विवाह परलकोट के जमींदार की पुत्री चंद्रकुंवर चंदेलीन से हुआ।

• प्रतापराज देव – 

बस्तर प्राकृतिक संपदा से परिपूर्ण है, इसके जमीन के अंदर प्रचुर मात्रा में लौह अयस्क है। जैसा कि हम सभी जानते हैं की मध्यकाल में तलवार–भाला और तीर–कमान से युद्ध हुआ करता था और इन्हे बनाने के लिए लोहे की आवश्यकता होती है। तो इसीलिए लोहे की लालसा में गोलकुंडा के कुतुबशाही वंश के शासक कुली कुतुबशाह ने बस्तर पर आक्रमण कर दिया। लेकिन बस्तर के भौगोलिक परिस्थिती के कारण इसे हरा पाना आसान नहीं है, इस युद्ध में कुली कुतुबशाह की हार हुई और प्रतापराज देव की जीत हुई।

• जगदीशराज देव –

 इनके शासनकाल मे कुतुबशाही वंश द्वारा बस्तर पर दूसरा आक्रमण हुआ, इस बार अब्दुल्ला कुतुबशाह ने आक्रमण किया था लेकिन इस बार भी इन्हे हार का स्वाद चखना पड़ा, जगदीशराज देव की जीत हुई।

• वीरनारायण देव –

 वीरनारायण देव के समय में अब्दुल्ला कुतुबशाह ने बस्तर पर फिर से आक्रमण कर दिया, यह कुतुबशाही वंश द्वारा बस्तर पर तीसरा आक्रमण था और हर बार की तरह इन्हें इस बार भी मुंह की खानी पड़ी। कुतुबशाही वंश ने बस्तर पर तीन बार आक्रमण किया और तीनों ही बार इन्हे असफलता मिली

• राजपाल देव (रक्षपाल देव) –

 इन्हे प्रौढ़प्रताप चक्रवर्ती की उपाधि मिली थी और ये माणिकेश्वरी देवी के उपासक थे। इनकी दो पत्नियां थीं जिनमें से पहली पत्नि इंद्रकुंवर चंदेलीन थी जिनसे राजा को दो पुत्र हुए 1. दलपत देव, 2. प्रतापसिंह देव। और दूसरी पत्नि रूद्रकुंवर बघेलीन थी जिनसे राजा को एक पुत्र हुआ जिसका नाम दक्खिन सिंह था। 

अब दक्खिन सिंह, दलपत देव और प्रतापसिंह सिंह देव से बड़े थे और ये दोनों अवयस्क भी थे जिस कारण से शासन दक्खिन सिंह को मिलने वाला होता है और राजा भी यही चाहते थे। लेकिन राजा के इस फैसले से बड़ी रानी रुष्ठ हो जाती है।

और जैसे ही राजपाल देव की मृत्यु होती है, बड़ी रानी इंद्रकुवर चंदेलीन अपने भाई चंदेल मामा को 10 वर्षों के लिए शासन सौप देती है।

• दलपत देव –

 जब दलपत देव और प्रतापसिंह देव बड़े हुए तब इन्होंने चंदेल मामा से अपना राज्य वापस मांगा लेकिन चंदेल मामा ने राज्य वापस करने में दिलचस्पी नहीं दिखाई होगी जिस कारण से इन्होंने चंदेल मामा को मारकर अपना राज्य वापस लिया।

इन्हीं के शासनकाल में 1770ई. में बस्तर पर नीलू पंडित के नेतृत्व में मराठा आक्रमण होता है जिसमें नीलू पंडित पराजित होता है और ओडिसा के जैपुर राज्य में शरण ले लेता है।

इन्होंने जगदलपुर को अपनी राजधानी बनाई, जगदलपुर में इन्होंने दलपत सागर और गंगमुंडा तालाब का निर्माण करवाया।

• अजमेर सिंह –

 दलपत देव के मृत्यु के पश्चात इनके दो पुत्रों अजमेर सिंह और दरियाव देव के बीच सत्ता के लिए संघर्ष शुरु हो गया। अजमेर सिंह को दलपत देव के शासनकाल में ही बड़े डोंगर क्षेत्र का अधिकार मिल गया था, लेकिन दलपत देव के मृत्यु के पश्चात दरियाव देव ने छल से जगदलपुर पर कब्ज़ा कर लिया जिसके कारण 1774 में अजमेर सिंह ने अपने हल्बा सैनिकों के साथ जगदलपुर आकर दरियाव देव को अपदस्थ कर दिया और खुद बस्तर के राजा बन गए।

लेकिन राजगद्दी के लालच में इनके भाई दरियाव देव ने 1777ई. में जैपुर शासक विक्रम देव, जॉनसन नाम के अंग्रेज और भोंसले शासकों के साथ मिलकर जगदलपुर पर आक्रमण कर दिया, बाहरी लोगों के लिए बस्तर को हरा पाना आसान नहीं था लेकिन इस बार घर का ही आदमी दुश्मन बन गया था, इस आक्रमण मे अजमेर सिंह की हार हुई।

• दरियाव देव –

 इनके राजा बनने की महत्वकांक्षा के कारण बस्तर को मराठों के अधीन होना पड़ा और इन्हीं के कारण छत्तीसगढ़ का प्रथम आदिवासी विद्रोह हल्बा विद्रोह हुआ। दरअसल अजमेर सिंह पराजित होने के बाद आदिवासियों के पास चले जाते हैं और उन्हें कहते हैं की ‘बस्तर पर बाहरी आक्रमण हो गया है और मुझे हटा दिया गया है’। आदिवासी इस बात से क्रोधित हो जाते हैं और दरियाव देव के शासन के खिलाफ विद्रोह कर देते हैं।

इतिहास में इस विद्रोह को हल्बा विद्रोह (1774–1779) के नाम से जाना जाता है। 

1777ई. मे इस विद्रोह के दौरान अजमेर सिंह की मृत्यु हो जाती है और 1778–79ई. तक हल्बा विद्रोह को भी बलपूर्वक पूरी तरह से कुचल दिया जाता है। इसके लिए दरियाव देव ने जैपुर शासक विक्रम देव, जॉनसन नामक अंग्रेज और भोंसले शासकों(मराठों) से मदद लिया था। दरिया देव के जीतने के बाद इस सहयोग के बदले में एक संधि हुई जिसे कोटपाड़ की संधि (6 अप्रैल 1778ई.) के नाम से जाना जाता है। 

कोटपाड़ की संधि में दरियाव देव को नागपूर के भोंसले शासकों को प्रतिवर्ष 59 हजार टकोली देने के लिए कहा गया जिसपर वे राजी हो गए और इस तरह से इन्होंने मराठों की अधीनता स्वीकार कर ली।

 मराठों के तरफ़ से त्रयंबक आविरराव इस संधि का प्रतिनिधत्व कर रहे थे। छत्तीसगढ़ तो मराठों के अधीन था ही अब बस्तर भी मराठों के अधीन आ गया और मराठे यहां के राजनीति को प्रभावित करने लगे। लेकिन 1854ई. में भोंसला शासक रघुजी तृतीय के पास पुत्र नहीं होने के कारण इनका राज्य लॉर्ड डलहौजी की हड़प नीति से अंग्रेजो के हाथों चला गया।

 क्योंकि बस्तर राज्य तथा छत्तीसगढ़ राज्य रघुजी तृतीय के अधीन था इसलिए ये दोनों राज्य अंग्रेजो के अधीन चला गया और मध्यप्रांत (सेंट्रल प्रोविंस) का हिस्सा हो गए। अब अंग्रेज इन दोनों को एक ही यूनिट मानकर शासन करने लगे। इस तरह से बस्तर और छत्तीसगढ़ एक हो गए (बस्तर छत्तीसगढ़ का हिस्सा हो गया)।

कोटपाड़ की संधि के अंतर्गत बस्तर का कोटपाड़ क्षेत्र का विलय ओडिसा के जैपुर राज्य में हो गया।

• महिपाल देव –

 ये महज़ 9 वर्ष की आयु में गद्दी पर बैठ गए थे, इन्हीं के शासनकाल में 1825ई. का परलकोट विद्रोह हुआ था। दरअसल परलकोट क्षेत्र के अबूझमाड़ीया लोग कर वृद्धि से काफ़ी परेशान थे जिस कारण से इन्होंने परलकोट के जमींदार के नेतृत्व में विद्रोह कर दिया।

• भूपाल देव –

 महिपाल देव के दो पुत्र हुए, भूपाल देव और दलगंजन सिंह। जिनमें से भूपाल देव ने सत्ता सम्हाली और दलगंजन सिंह को तारापुर परगने का अधिकार दिया गया।

इनके शासनकाल दो प्रमुख विद्रोह हुए, तारापुर विद्रोह(1842ई.–1854ई.) और माडिया विद्रोह (1842ई. से 1863ई.) और ये विद्रोह कर की वृद्धि के कारण हुए थे। जिनमें से तारापुर विद्रोह का नेतृत्व स्वयं दलगंजन सिंह कर रहे थे। दरअसल मराठों को दिए जानें वाले 59 हज़ार टकोली के कारण क्षेत्र में ऐसी स्थिती उत्पन्न हो रही थी।

इसी काल तक दंतेश्वरी मंदिर में नरबलि भी दी जाती थी, जिसके बारे में अंग्रेजो को पता चल गया और इन्होंने इसका विरोध किया, बस्तर शासक पर दबाव बनाया और मंदिर के पास पुलिस बल भी भेजे जिसका वहा के माडिया आदिवासियो ने विरोध किया और इस तरह से माडिया विद्रोह आरंभ हो गया।

• भैरम देव –

 इनके शासनकाल में भी लिंगागिरी विद्रोह, कोई विद्रोह, मुड़िया/मुरिया विद्रोह, रानी चोरिस का विद्रोह जैसे विद्रोह हुए।

लिंगागिरी विद्रोह(1856ई.) – लिंगागिरी बस्तर का एक तालुका है और यहां के लोगों को अंग्रेजों के अधीन जाना पसंद नही था इसलिए इन्होंने विद्रोह कर दिया।

कोई विद्रोह(1859ई.) – बस्तर के जंगलों और पहाड़ों में रहने वाले लोगों को कोई कहते हैं। दरअसल नागपूर क्षेत्र के राजा यहां के साल के वनों को काटकर अपने क्षेत्र में ले जाकर बेंचा करते थे जिसका "कोई" लोगो ने विरोध किया। इस तरह से वनों को बचाने के लिए कोई विद्रोह किया गया।

मुड़िया/मुरिया विद्रोह(1876ई.) – अत्यधिक कर व अत्याचार के खिलाफ़ मुरिया लोगों ने विद्रोह किया था।

रानी चोरिस का विद्रोह – जुगराज कुंवर भैरम देव की रानियों में से एक रानी थी, दरअसल इनके पुत्रों को शासन नहीं मिला जिसका इन्होंने विरोध किया। इनके विरोध को रानी चोरिस का विद्रोह के नाम से जाना जाता है।

• रूद्रप्रताप देव –

 प्रथम विश्व युद्ध के दौरान इन्होंने बस्तर से सेना भेजकर अंग्रेजो की मदद की है। आसान शब्दों में कहें तो बस्तर के सैनिकों ने अंग्रेजो के तरफ से प्रथम विश्व युद्ध लड़ा है। बाद में इन्हें सेंट ऑफ येरूशलम की उपाधि मिली। इन्ही के शासनकाल में गुंडाधूर के नेतृत्व में भूमकाल विद्रोह हुआ।

• प्रफुल्ल कुमारी देवी –

 ये छत्तीसगढ़ की प्रथम महिला शासिका हैं, क्योंकि रूद्रप्रताप देव के कोई पुत्र नहीं थे इसलिए इनकी इकलौती पुत्री प्रफुल्ल कुमारी देवी बस्तर की महारानी बनी। 

इनका विवाह मयूरभंज (ओडिशा) के प्रफुल्लचंद्र भंजदेव से हुआ। इनके दो पुत्र प्रवीरचंद्र भंजदेव और विजयचंद्र तथा दो पुत्रियां कमला देवी और गीतादेवी हुई।

इन्हे शासन चलाने के लिए बहुत से परेशानियों का सामना करना पड़ा, अंग्रेजो ने इनके पति के बस्तर आने पर प्रतिबंध लगा दिया था। अंग्रेजो ने इन्हें इनके बच्चों से भी दूर रखा। 

रानी अपेंडिक्स के ईलाज के लिए ब्रिटेन गई हुई थी जहां 1936ई. में इनकी मृत्यु हो गई। कहा जाता है की अंग्रेजो ने शाजिस के तहत इनकी नस काटकर हत्या कर दी।

• प्रवीरचंद्र भंजदेव –

 ये बस्तर के सबसे लोकप्रिय राजा है, बस्तर की जनता इन्हे भगवान मानती थी। माता प्रफुल्ल कुमारी देवी के मृत्यु के पश्चात इनका लालन पालन अंग्रेजो के देखरेख में हुआ जहां इन्हे राजकुमार होते हुए भी प्रताड़ना का सामना करना पड़ा।

 इन्होंने अपने ग्रंथ लोहंडीगुड़ा तरंगिणी में खुद को काकतीय वंश का बताया है और अपने आदिपुरुष अन्नमदेव को भी काकतीय बताया है। 1948ई. में भारत की आज़ादी के बाद रियासतों का विलय होने लगा इसी क्रम में बस्तर रियासत का भी भारत संघ में विलय हो गया और इस तरह से ये बस्तर रियासत के अंतिम राजा हुए। 1961ई. में जगदलपुर के राजमहल में हुए गोलीकांड में इनकी मृत्यु हो गई।


काकतियो का प्राचीन इतिहास

काकतीय वंश मूल रूप से एक दक्षिण भारतीय राजवंश है, जो की राजनैतिक उथल–पुथल के कारण बस्तर में आ बसी। बस्तर में आने से पहले ये वारंगल राज्य पर राज करते थे।

1198ई. से 1261ई. तक वारंगल राज्य में काकतीय शासक गणपति देव ने शासन किया लेकिन इनका कोई पुत्र नहीं था, इनकी दो पुत्रियां थीं रुद्रंबा देवी और गणपंबा देवी जिनमे से रुद्रंबा देवी ने शासन सम्हाला।

रुद्रंबा देवी का विवाह वीरभद्रेश्वर नामक व्यक्ति से हुआ जो की एक चालुक्य थे लेकिन इन दोनों का भी कोई पुत्र नहीं हुआ, इनकी सिर्फ एक ही पुत्री थी जिनका नाम मम्मडंबा था।

 मम्मडंबा का विवाह महादेव नाम के एक व्यक्ति से हुआ जो कि अन्हिलवाड के चालुक्य थे। रुद्रंबा देवी की पुत्री मम्मडंबा तथा महादेव के दो पुत्र प्रतापरुद्र देव और अन्नमदेव तथा एक पुत्री रैला देवी हुई (बस्तर के आदिवासी आज भी रैला देवी की पूजा करते हैं)।

अब रुद्रंबा देवी के पास कोई पुत्र तो था नहीं इसलिए इन्होंने अपनी बेटी मम्मडंबा के बड़े बेटे प्रतापरुद्र देव को दत्तक पुत्र नियम के तहत काकतीय बनाकर गोद लिया और इन्हे वारंगल की राजगद्दी सौंपी

वारंगल में रुद्रंबा देवी का शासन 1261ई. से 1293ई. तक चला। जब प्रतापरूद्र देव का शासन आया तो इनका शासन 1293ई. से 1310ई. तक को अच्छे से चला लेकिन 1310ई. के बाद समस्याएं आना शुरु हो गई।

इस समय में दिल्ली में खिलजी वंश का शासन था और अलाउद्दीन खिलजी दिल्ली का सुल्तान था। तो सुल्तान का सेनापति मलिक काफूर इस समय देवगिरी को जीतने के लिए निकला हुआ होता है और देवगिरी को जीतने के बाद 1309–10ई. में ये वारंगल पर हमला कर देता है(यह वारंगल पर पहला मुस्लिम आक्रमण होता है)।

प्रतापरुद्र देव को पता होता है की वो खिलजियों से नहीं जीत सकता इसलिए वो अपनी एक सोने की मूर्ति बनवाता है और उसे जंजीरों से जकड़कर मलिक काफूर को दे देता है और कहता है की जाके इसे सुल्तान को दे देना, इस मूर्ति के साथ वो बहुत सा धन भी देता है। मलिक काफूर कहता है की तुम्हे हर साल कर देना होगा और प्रतापरुद्र देव इस बात पर राजी हो जाते हैं।

खिलजियों के बाद दिल्ली में तुगलकों की सत्ता आती है और गयासुद्दीन तुगलक दिल्ली के नए सुल्तान बनते हैं। दिल्ली में तख्ता पलट होने के बाद से वारंगल से दिल्ली टैक्स जाना बंद हो जाता है और जब इसकी जानकारी गयासुद्दीन तुगलक को होती हैं तो वो टैक्स के लिए प्रतापरुद्र देव को चिट्ठी लिखता है, लेकिन प्रतापरुद्र देव टैक्स देने से साफ इंकार कर देता है।

जिसके कारण सुल्तान के सेनापति और बेटे मोहम्मद बिन तुगलाक (जौना खां) ने वारंगल पर चढ़ाई कर दी, यह वारंगल पर दूसरा मुस्लिम आक्रमण होता है। प्रतापरुद्र देव को इस बार फिर समर्पण करना पड़ता है और मो. बिन तुगलक वारंगल को लूट कर ले जाता है।

इसके बाद वारंगल से कुछ दिनों तक तो टैक्स गया लेकिन दो–दो बार लूट जाने के बाद इनके पास कुछ बचा नहीं था इसलिए कुछ समय बाद टैक्स जाना फिर से बंद हो जाता है।

दिल्ली से फिर से चिट्ठी आती है, लेकिन इस बार प्रतापरुद्र देव लिखते हैं कि अब हमारे पास कुछ नहीं बचा है हम कुछ नहीं दे सकते है सिर्फ मैं बचा हूं मुझे ही ले जाइए।

इस रिप्लाई के बाद वारंगल पर तीसरा मुस्लिम आक्रमण होता है, मो. बिन तुगलक ने वारंगल पर दूसरी बार चढ़ाई कर दी। इस बार प्रतापरुद्र देव ने अपने भाई अन्नमदेव को सहायता के लिए बुलाया होता है लेकिन फिर भी इनकी हार होती है। 

इसके बाद कुछ का कहना है कि प्रतापरुद्र देव को बंदी बनाकर दिल्ली ले जाया गया और कुछ लोग कहते हैं कि इन्हे मार दिया गया। इसके बाद अन्नमदेव काकतीय गद्दी को बचाते हुए बस्तर की बढ़ चले जहां इन्होंने 1324ई. में बारसूर के छिंदक नागवंशी राजा हरीशचन्द्र को हराकर बस्तर में काकतीय वंश की नीव रखी।

 और इस तरह से बस्तर में काकतीय वंश के शासन की शुरुआत होती है। हालाकि अन्नमदेव काकतीय गद्दी के अंतर्गत शासन कर रहे थे लेकिन ये मूलतः चालुक्य थे, और इनके सभी वंशज खुद को काकतीय ही बताते हैं।

प्रवीर चंद्र भंजदेव जो की मयूरभंज के भंज वंश से ताल्लुक रखते थे, ये भी खुद को काकतीय ही बताते हैं। शायद ये बात आपको आज तक पता नहीं होगी की जिस कोहिनूर हीरे की हम इतनी तारीफ़ सुनते हैं और जो भी ब्रिटेन की महारानी की ताज मे लगा हुआ है वह काकतीय वंश का ही है। इन्हीं के खदान से वो बहुमूल्य हीरा प्राप्त हुआ था।

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