बिरहोर जनजाति–भारत की एक आदिम जनजाति

बिरहोर भारत की एक आदिम जनजाति है जो बरसों से झारखंड, पश्चिम बंगाल, ओडिशा और छत्तीसगढ़ के जंगली हिस्सों में आदिम तरीके से निवास कर रहीं है। इस जनजाति की अधिकतर आबादी झारखंड के सिंहभूम और हजारीबाग क्षेत्र में निवास करती है। 

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बिरहोरों का मुख्य पेशा रस्सी बनाना रहा है जिसका उपयोग ये जाल बनाकर बंदर पकड़ने के लिए करते हैं। ओडिशा में इन्हें मनकड़िया के नाम से जाना जाता है।


बिरहोर जनजाति की मूलभूत जानकारी?

जनजाति – बिरहोर (बिर = जंगल, होर= आदमी)

जनजाति समूह – प्रोटो-आस्ट्रेलॉइड

भाषा – बिरहोरी (मुंडारी भाषा का एक अंग)/होडकू

निवास स्थान – झारखंड(मुख्यत:), पश्चिम बंगाल, ओडिशा और छत्तीसगढ़

जनसंख्या – 17,044

मुख्य देवता – सिंगबोंगा, देवी माई

बिरहोर जनजाति का रहन–सहन और जन–जीवन  

बिरहोर मुख्य रूप से झारखंड में पाई जाने वाली भारत की एक आदिम जनजाति और छत्तीसगढ़ की एक विशेष पिछड़ी जनजाति है जो पहले सिर्फ़ शिकार करके अपना जीवन यापन करती थी।

ये स्वभाव से शर्मीले होते हैं जो गांव से थोड़े दूर लकड़ी और मिट्टी से बने अलग से बस्ती में रहते हैं जिसे टांडा या टंडा कहा जाता हैं।

अधिकतर बिरहोर घुम्मकड़ प्रवृत्ति के होते हैं और स्थाई रुप से खेती नहीं कर पाते, वर्तमान में इन्हें स्थाई रूप से बसाने की कोशिशें हो रही है।

बिरहोरों का मुख्य पेशा रस्सी बनाना रहा है, इसके लिए ये मोहलाइन छाल, बहुनिया पेड़ का छाल और चौप बेल ईत्यादि का इस्तेमाल करते हैं।

रस्सियों से ये शिकार करने के लिए जाल बनाते हैं, बंदर इनका पसंदीदा शिकार है और बंदरों में इनका इसकदर खौफ है की लोग कहते हैं "जिस पेड़ को बिरहोर छू दे, उसपे कभी बंदर नहीं चढ़ता"।

बिरहोर भी दो प्रकार के होते हैं

1. जंगही या धानिया बिरहोर – जो स्थायी रूप से निवास करते हैं।

2. उथलु या भूलिया बिरहोर – जो घुमक्कड़ होते हैं।

बिरहोर जनजाति की सामाजिक व्यवस्था

बिरहोरों में पितृसत्तात्मक/पितृवंशीय सामाजिक व्यवस्था होती है और जन्म, विवाह तथा मृत्यु इनके तीन प्रमुख संस्कार हैं।

बिरहोरों के मुखिया के घर के सामने सांप की आकृति वाली लोहे की छड़ी गड़ी हुई होती है जिससे मुखिया(नाया) की पहचान होती है। मुखिया के घर के सामने ही पुजा स्थल होता है।

मतभेदों का निपटारा पंचों द्वारा किया जाता है और पंचों के नियम एकदम सख्त होते हैं। नाया और उपनाया दोनों पक्षों की बातों को अच्छी तरह से सुनते हैं जिसके बाद नाया फैसला सुनाता है, नाया द्वारा किया गया फैसला सर्वमान्य होता है। 

जब तक कोई जघन्य या आपराधिक मामला न हो तब तक न्यायालयों की आवश्यकता नहीं पड़ती।

बंदर पकड़ने का जाल बिरहोरों की पहचान है, इसे रीति–रिवाजों और सामाजिक कार्यों में इसे शामिल किया जाता है।

बिरहोरों का आर्थिक जीवन 

आदिकाल से ही बिरहोरो की आर्थिक गतिविधियां जंगलों पर आधारित रही है। इन्होंने शिकार करके, कंदमूल खाके और वनोपज बेंच के अपना जीवन–यापन किया है।

घुमंतू जीवनशैली के कारण इनकी शिक्षा और आर्थिक स्थिति प्रभावित हुई है। अशिक्षा के कारण रोजगार के नए अवसर तलाश नहीं पाते हैं और आर्थिक स्थिति खराब होने के कारण कुपोषण के शिकार हो जाते हैं।

रस्सी बनाना इनका मुख्य पेशा रहा है लेकिन प्लास्टिक के जमाने मे छालों से बने रस्सियों को लेने वाले नहीं मिलते हैं, मांग को समझते हुए अब ये भी प्लास्टिक के रस्सी बनाने लगे हैं।

कृषि में भी कुशलता नहीं है, पहले अस्थाई खेती करते थे लेकिन अब स्थाई रुप से खेती करने लगे हैं।

सरकार को जनजातियों की आर्थिक स्थिति सुधारने हेतु प्रयास तो करने ही चाहिए, लेकिन यह भी ध्यान रखना चाहिए की कहीं इनकी प्राचीन कलाएं विलुप्त न हो जाएं।

बिरहोर जनजाति में जन्म संस्कार

बिरहोर जनजाति में जन्म एक विशेष संस्कार है, ये प्रसव के लिए घर के बाहर एक अलग से कुड़िया (झोपड़ी या कुरमा) बनाते हैं। प्रसव के बाद मां और बच्चे को शुरुआती एक महीना उसी कुड़िया में बिताना होता है तथा प्रसव के एक हफ्ते बाद ही मां और बच्चे को धूप दिखाया जाता है।

बिरहोर जनजाति का युवागृह 

बिरहोर जनजाति के युवागृह को गीतिओना कहते हैं जिसमें 10वर्ष से अधिक उम्र के लोग प्रवेश ले सकते हैं।

बिरहोर जनजाति में विवाह–संस्कार 

बिरहोर जनजाति में जाति और गोत्र के आधार पर विवाह होता है, यहां समगोत्रिय विवाह वर्जित है।

बिरहोर मुख्यतः अभिभावकों द्वारा कराए गए विवाह "सदोर बापला" को उपयुक्त मानते हैं।

इसकेे अलावा उड़रिया (भाग कर) विवाह, गोलत (विनिमय) विवाह और चूड़ी पहनावा विवाह भी होता है।

बिरहोरी संस्कृति में दहेज़ प्रथा का प्रचलन नहीं है बल्कि यहां पर लड़के वाले ही नेग देते हैं।

कृषि कार्यों से मुक्त होने के बाद ये विवाह के लिए लड़की ढूंढने निकलते हैं।

घर के तीन सदस्य हाथ में छड़ी या छाता लेकर लड़की ढूंढने जाते हैं, लड़की पक्ष वालों से बात होती है, अगर लड़की पक्ष को रिश्ता मंजूर होता है तो वे छड़ी या छाता को स्वीकार कर घर के एक हिस्से में रख देते हैं, इसे ही "छड़ी धराई रस्म" कहते हैं। घर जाते समय छड़ी को वापस कर दिया जाता है।

इन विशेष मेहमानों का स्वागत पांव धोकर किया जाता है और इन्हें बंदर पकड़ने के जाल पर बिठाया जाता है। घर के आंगन में रिश्ते की बात होती है और यही पर लड़की को मेहमानों के सामने लाया जाता है।

रिश्ता तय हो जाने पर मेहमानों को हड़िया दारू पिलाया जाता है और खैनी खिलाया जाता है। इस रस्म के बाद कन्या ससुराल पक्ष से आए मेहमानों का पैर छूती है जिसके बाद छड़ी लौटाकर आदर सहित इन्हें विदा कर दिया जाता है। मेहमान खुशी से गाते हुए घर की ओर रवाना होते हैं।

अब यही रस्म लड़के के घर दोहराई जाती है, लड़की वाले अपने परिवार वालों के साथ लड़का पसन्द करने आते हैं। लड़का पसन्द आ जानें पर विवाह की तारीख तय होती है जिसके बाद लड़का ढेढ़हा के साथ लड़की पक्ष से आए मेहमानों का पैर छूकर आशीर्वाद लेता है।

विवाह तय हो जाने पर विवाह के दिन घर को आम के पत्तो से सजाया जाता है और आंगन में मड़वा बनाया जाता है। बारात के लिए प्रस्थान करने से पूर्व घर तथा गांव और प्रस्थान करने वाले स्थान के देवी–देवताओं से प्रार्थना करके लड़के के लिए आशीर्वाद मांगा जाता है।

बारात के दौरान दूल्हे के अलग पहचान के लिए उसे छड़ी या छाता पकड़ाया जाता है। वर और वधू को एक साथ बैठाकर रस्में निभाई जाती है और हड़िया दारू पीकर खूब नाच–गान किया जाता है।

बारात वापसी के बाद दूल्हे के घर में भी कई प्रकार की रस्में निभाई जाती है, यहां भी हड़िया दारू पीकर खूब नाच–गान किया जाता है। वर–वधु को मड़वा के नीचे बैठाकर इनके ऊपर पानी डाला जाता है और पैर धोने के बाद इन्हें घर के अंदर प्रवेश कराया जाता है।

विवाह संपन्न होने के बाद मड़वा को तोड़कर सुरक्षित स्थान पर रख दिया जाता है।

बिरहोर जनजाति में अंधविश्वास 

अन्य जनजातियों की ही तरह बिरहोर भी अंधविश्वास में जकड़ी हुई जनजाति है जो कि झाड़फुंक में विश्वास रखती है। बिरहोर जादू–टोने पर विश्वास रखते हैं और बलि भी चढ़ाते हैं। झाड़फुंक और जड़ी–बूटी से ईलाज करने वाले को मति कहते हैं।

बिरहोर जनजाति के देवी–देवता 

सिंगबोंगा और देवी माई बिरहोरो के प्रमुख देवी–देवता हैं। नाया के घर के सामने ही पुजा स्थल होता है, नाया पुजा पाठ कराता है।

बिरहोर जनजाति के उत्सव एवं त्यौहार

आदिवासियों के बारे में कहा जाता हैं कि "बोलना ही इनका गीत है और चलना ही इनका नृत्य", शाम को ये इकट्ठा होकर गांव के अखरा में नाचते हैं।

कृषि कार्यों से मुक्त होने के बाद ये तीज–त्योहार, पर्व एवं रस्म आदि मनाने में लग जाते हैं।

नवाजोन, करमा, जितिया, सोहराय और दलई आदि बिरहोरो के प्रमुख त्यौहार है।

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