उरांव जनजाति की संपूर्ण जानकारी – A to Z

उरांव जनजाति की संपूर्ण जानकारी – A to Z


उरांव कौन है?

उरांव भारत का एक जनजाति समुदाय है जिसका मुख्य निवास स्थान झारखण्ड का छोटा नागपुर है।

ऐसा माना जाता है कि सालो पहले ये दक्षिण भारत में निवास किया करते थे लेकिन सामाजिक और राजनैतिक उथल–पुथल के दौर में ये दक्षिण भारत को छोड़कर सिंधु घाटी की ओर चले आए, यहां भी इन्हें स्थिरता नहीं मिली। यहां से ये सोने तराई फिर रोहतासगढ़ होते हुए अंत में छोटा नागपुर आ बसे। 

यहीं से ये छत्तीसगढ़, ओडिशा, महाराष्ट्र, पश्चिम बंगाल और त्रिपुरा की ओर फैलने लगे।

झारखंड में इनका मुख्य निवास क्षेत्र रांची, पलामू, लातेहार, हजारीबाग, सिंहभूम और संथाल परगना है। और जनसंख्या की दृष्टि से यह झारखंड की दूसरी सबसे बड़ी जनजाति है। 

पौराणिक कथाओं के अनुसार रोहतासगढ़ में उरांव लोगों का राज था।

 

 उराव लोगों का जाति समूह एवं भाषा

उराव जनजाति झारखंड की सबसे बड़ी जनजातियों में से एक है।
ये लोग Dravidian ethnolinguistic group (द्रविड़ मूल) के सदस्य हैं, जो कुरुख/कुडूक बोली बोलते हैं (यह एक द्रविड़ मूल की भाषा है)।


उरांव लोगों की वेशभूषा एवं शारीरिक बनावट

सामान्यतः इनका रंग सावला होता है और इनकी औसत ऊंचाई लगभग 5 से 5.6 फीट के आसपास की होती है।
इनके बाल काले होते हैं।

उरांव लोग कम कपड़ों में रहना पसंद करते हैं, महिलाएं कराया वस्त्र पहनती हैं जो जूट से बना होता है। 


उरांव लोगों का रहन–सहन

उरांव लोग छोटे गांव में रहना पसंद करते हैं।

घर का आंगन खुला हुआ होता है जहां से हवा आती है यह सिर्फ जरूरत भर के सामान को रखते हैं

आदिम तरीके से जीवन–यापन करने वाले उरांव लोग अपना मकान स्वयं निर्मित करते हैं, इनके घर मिट्टी, बांस एवं खपरैल की बनी होती है।

महिलाएं आंगन की गोबर से लिपाई करती हैं।

स्वास्थ्य खराब होने की स्थिति में प्राथमिक उपचार के लिए ये लोग वनौषधियों एवं जड़ी–बूटियों का इस्तेमाल करते हैं। 


उरांव लोगों का आर्थिक जीवन

यह लोग प्राचीन समय से कृषि एवं पशुपालन करते आ रहे हैं 

उराव जनजाति सामाजिक और राजनीतिक दृष्टि से समृद्ध जनजाति है यह लोग बाहरी दुनिया से मेलजोल का महत्व समझते थे जिस कारण यह विकसित हो रहे हैं।

इनका मुख्य पेशा कृषि है और कृषि कार्यों के क्षेत्र में ये अपने समकक्ष जनजातियों से श्रेष्ठ है। 

कृषि कार्यों में एक दूसरे की मदद करने की प्रथा को को पसरी प्रथा कहते हैं।


उरांव लोगों की सामाजिक व्यवस्था

इनमें संपत्ति पर केवल पुरुषो का अधिकार (पितृसत्तात्मक व्यवस्था) होता है।

इनके सबसे बड़े सामाजिक न्याय संगठन को पड़हा कहते हैं।

पड़हा गांवों का एक संगठन है, जो कि 11 गांवों का संगठन या फिर 20 गांवों का संगठन हो सकता है।

पड़हा पंचायत व्यवस्था में पड़हा का कोई भी पद स्थाई नहीं होता है।

ये लोग गोत्र को किली कहते हैं, इनके प्रमुख के गोत्र पीर की कक्षा मिंज खलको एक का खाखा केरकेट्टा लकड़ा टोप्पो कूजूर इत्यादि 

अधिकांश गोत्र, गोत्र चिन्ह प्रकृति के नाम से है।

विकसित हैं फिर भी जंगलों पर काफी हद तक निर्भर है।


उरांव जनजाति में शिक्षा

इनमें शिक्षा के प्रति विशेष रुझाव है, ये बदलाव को स्वीकार करते हैं।

इनकी शिक्षा में मिशनरी स्कूलों का खास योगदान रहा है, ये बाहर से आए हुए अन्य धर्म के लोगों से प्रभावित भी हो रहे हैं जिस कारण धर्म में परिवर्तन भी देखा जा सकता है 

धूमकुरिया इनका एक प्रमुख शैक्षणिक संस्थान है।


उरांव जनजाति का युवागृह

उरांव जनजाति के युवागृह को धूमकुरिया कहतें हैं।

यह इनका व्यवहारिक शिक्षण संस्थान है जिसमें 10 से 11 वर्ष की आयु में प्रवेश मिल जाता है। 

धूमकुरिया में माघी पूर्णिमा के दिन दाखिला दिया जाता है, और तब से लेकर विवाह होते तक लोग इसके सदस्य रहते हैं। 

धूमकुरिया में युवक–युवती दोनों को प्रवेश दिया जाता है, बुजुर्गो की देखरेख में युवक–युवतियां धूमकुरिया में रहते हैं।

लड़कों के धूमकुरिया को जोख–एरपा या फिर धांगर कुड़िया कहते हैं जिसका नियंत्रण एवं देखभाल महतो या धांगर महतो करते हैं। 

लड़कियों के धूमकुरिया को पेल–एरपा कहते हैं जिसका नियंत्रण एवं देखभाल बड़की धागरीन करती हैं।


• धूमकुरिया में तीन श्रेणियां होती है


 1. पूना जोखर (नए प्रवेश)


 2. मांझ जोखर (3 साल पुराने)


 3. कोटा जोखर (बहुत पुराने)


• इसके अधिकारी प्रत्येक 3 वर्ष में बदल दिए जाते हैं।

धूमकुरिया को जनजातीय प्रशिक्षण केंद्र कहा जाता हैं जहां व्यवहारिक ज्ञान की शिक्षा दी जाती है।


उरांव जनजाति की कला–संस्कृति एवं प्रमुख पर्व

उराव लोगों का मुख्य पर्व करमा पर्व है जिस पर ये करमा नृत्य करते हैं, करम देवता इनके प्रमुख देवता है।

इनमे जादुर नृत्य, कर्मा नृत्य, चाली नृत्य, जारगा नृत्य एवं सरहुल नृत्य प्रमुख है।

सरहुल इनका प्रमुख पर्व है इस दौरान ये पेड़ के चारों ओर घूम–घूम कर नाचते हैं और साल वृक्ष की पूजा करते हैं।

सरहुल के दौरान ये धरती और आकाश के मिलन को एंजॉय करते हैं।

इनका मुख्य पेय हड़िया है।


उरांव जनजाति में जन्म–संस्कार

उरांव लोग जन्म के बाद छट्टी का कार्यक्रम रखते हैं, आदिवासियों में लड़के और लड़कियों के बीच भेदभाव न के बराबर होता है।

बच्चे के जन्म को ये लोग उत्सव की तरह मनाते हैं।

उरांव जनजाति में विवाह

उरांव जनजाति में विवाह एक उत्सव की तरह होता है।

विवाह के लिए लड़के वाले लड़की देखने जाते हैं, इस दौरान लड़कीयों को अपना पसंद–नापसंद व्यक्त करने की आजादी होती है। विवाह से पहले अपने होने वाले पति से बातचीत करके उसको जांचने परखने की छूट होती है।

पहले के समय में लड़कियां कुछ दिनों के लिए अपने होने वाले ससुराल में रहने के लिए भी जाती थी ताकि वह अपने होने वाले ससुराल को अच्छे से जान सके।

इनमें एक ही गोत्र में विवाह करना (समगोत्रीय विवाह) निषेध है इसके अलावा एक ही गांव में शादी करना (समग्रामा विवाह) भी निषेध है।

जाति से बाहर शादी करने वालों को जाति से बाहर कर देने का प्रावधान है।

उराव जनजाति में दहेज प्रथा नहीं है फिर भी बाहरी संस्कृतियों से कुछ लोग प्रभावित हो जाते हैं।

इनमें मंगनी की रस्म तब तक पूरी नहीं होती जब तक लड़की और लड़के के मां-बाप एक दूसरे को सिंदूर ना लगाले।

इनमें डाली ठेका प्रथा है जिसके अनुसार ₹7 टोकन के रूप में दिए जाते हैं।

लड़की के सिर पर सफेद कपड़ा डाल देने से रिश्ता तय माना जाता है।

लड़की–लड़के को गोद में उठाकर मंडप में लाया जाता है, गाना गाए जाते हैं, हल्दी लगाई जाती है। इस प्रकार से विभिन्न रस्मों को निभाते हुए विवाह संपन्न होता है।

इनमें एक विवाह की प्रथा है विशेष स्थिति में दो विवाह लेकिन बहु विवाह की प्रथा कदापि नहीं है।

विधवा विवाह की मान्यता है।

बिना मां बाप के अनुमति के किए गए विवाह को मान्यता नहीं दी जाती है।


उरांव जनजाति में मृत्यु संस्कार

इनमें दाह–संस्कार की प्रथा है।
लेकीन जो लोग ईसाई धर्म को स्वीकार कर लिए हैं वो शवों को दफनाते है।

चिता को मुखाग्नि पुत्र देता है। 

बहु अस्थियों को अपनें आंचल में उठाकर लाती है और वही विसर्जन भी करती है।

अंतिम संस्कार पूरे रीति रिवाज से करते हैं


उरांव जनजाति में अन्धविश्वास

उरांव लोग झाड़-फूंक में विश्वास रखते हैं। 

ये लोग प्रत्येक त्यौहार पर पुरखों को याद करते हैं।

पूजा–पाठ के दौरान मुर्गी के सामने चावल का दाना रखा जाता है अगर मुर्गी चावल का दाना खा लेती है तो यह माना जाता है कि पुरखों या देवी–देवताओं ने इनकी बात मान ली है, वे इनकी पूजा से संतुष्ट हो गए हैं।

समय-समय पर किसी शुभ कार्य करने से पहले इस ईष्ट कुल के लिए पुरखों और परमेश्वर से शुभकामना करते हुए भाख कटी कराई जाती है 


उरांव समाज में स्त्रियों की स्थिति

यह एक पुरुष प्रधान समाज है, लेकिन सहभागिता के मामले में महिलाएं पुरूषों से एक कदम भी पीछे नहीं है।

आदिवासियों में लड़कों और लड़कियों के बीच भेदभाव बहुत कम होता है और लड़कियां पुरुषों के साथ कदम–से–कदम मिलाकर चलती है।

चिता को मुखाग्नि पुत्र देता है, बहु अस्थियों को अपनें आंचल में उठाकर लाती है और बहु ही विसर्जन करती है।

शादी, जन्म एवं मृत्यु इन सभी में महिलाओं की महत्वपूर्ण भूमिका होती है। 

उदाहरण:– महिला पुरोहित भी विवाह संपन्न करा सकती हैं।

कर्मा एक स्त्री प्रधान पूजा है। 

लड़कियों को अपना वर चुनने की आजादी होती है।

तो ये है स्त्रीयों की उरांव समाज में स्थिती।



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