रानी दुर्गावती और गोंड राजवंश की कहानी

आज का मध्यप्रदेश, विदर्भ का पूर्वी हिस्सा और छत्तीसगढ़ का उत्तरी हिस्सा, ये मिलकर बनाते हैं तब के "गोंडवाना लैंड" जहां राज किया है गोंडों ने। जहां थी अपार प्राकृतिक संपदा, धन और दौलत। इसी गोंडवाना लैंड के "गढ़मंडला" राज्य में एक वीरांगना हुई जिन्होंने न सिर्फ़ गोंडों का अपितु समूचे भारतवर्ष का मान बढ़ाया।

रानी दुर्गावती और गोंड राजवंश की कहानी

वो वीरांगना कोई और नहीं बल्कि गढ़मंडला की महारानी, रानी दुर्गावती थीं जिनकी वीरता के किस्से पूरे भारतवर्ष में गूंजते हैं, जिन्होंने मुगलों से लोहा लिया था।


कालखंड 

यह कहानी मध्यकालीन भारत के अंत के समय की है जब देश में मुगल सल्तनत स्थापित हो रहा था और गोंडवाना लैंड सिमट रहा था। यह कहानी 16वीं सदी की है।


रानी दुर्गावती का प्रारंभिक जीवन

रानी दुर्गावती का जन्म 5 अक्टूबर 1524ई. को महोबा के चंदेल राजपूत वंश में राजा कीरत रॉय के घर हुआ। दुर्गाष्टमी के दिन जन्म लेने के कारण इनका नाम दुर्गावती रखा गया। इनका बचपन कालिंजर किले में बीता जहां ये तीरंदाजी, शिकार, शस्त्र विद्या, और घुड़सवारी में पारंगत हुई।


रानी दुर्गावती का विवाह 

राजकुमारी दुर्गावती राजा कीरत राय की इकलौती पुत्री थी, अब राजकुमारी दुर्गावती विवाह योग्य हो चुकी थी और इनकी सुंदरता तथा युद्ध कौशल के चर्चे दूर–दूर तक होने लगे थे।

महोबा के बगल में ही गढ़मंडला राज्य हुआ करता था जहां महाप्रतापी गोंड राजा, राजा संग्राम शाह शासन करते थे। ये भी अपने पुत्र राजकुमार दलपत शाह के लिए एक कुलीन कन्या ढूंढ रहे थे। जब इन्हें राजकुमारी दुर्गावती के बारे में पता चला तो इन्होंने अपने पुत्र के साथ इनके विवाह के लिए राजा कीरत राय के पास प्रस्ताव भेजा।

राजकुमारी दुर्गावती, दलपत शाह के वीरता के बारे में सुन चुकी थी अतः इन्हें इस प्रस्ताव से कोई दिक्कत नहीं था लेकिन चंदेल राजपूत वंश के राजा कीरत राय गोंड वंश में अपनी पुत्री की शादी नहीं करना चाहते थे जिस वजह से इन्होंने राजा संग्राम शाह के प्रस्ताव को ठुकरा दिया।

बदले में राजा संग्राम शाह अपनी सेना लेकर कालिंजर किले के द्वार पर खड़े हो गए और कीरत राय को चुनौती देने लगे की "या तो अपनी पुत्री का हाथ दो या हमसे युद्ध करो।" 

लेकिन 52गढ़ जीतने वाले संग्राम शाह को युद्ध में हराना कोई आसान काम नहीं था, अंततः कीरत राय को झुकना पड़ा और इस तरह से सन् 1542ई. में 25 वर्षीय राजकुमार दलपत शाह और 18 वर्षीय राजकुमारी दुर्गावती की शादी हुईं।


गढ़मंडला राज्य

गोंडवाना लैंड में उस समय चार प्रमुख राज्य हुआ करते थे

1. गढ़मंडला राज्य (जबलपुर और मंडला क्षेत्र)
2. चांदा राज्य (चंद्रपुर क्षेत्र)
3. खेरला राज्य (बैतूल क्षेत्र)
4. देवगढ़ राज्य (नागपुर और छिंदवाड़ा क्षेत्र)

इन चारों राज्यों में गढ़मंडला राज्य सबसे ज्यादा शक्तिशाली था। गढ़मंडला राज्य में गोंड शासन की स्थापना जदूराई/जादूराय (Jadurai) नामक गोंड शासक ने किया, इससे पहले ये कल्चुरी राजवंश में राजदरबारी थे। बताया जाता है कि इन्होंने कलचुरियो को पदच्युत करके गोंड शासन की स्थापना करी।

गढ़मंडला के गोंड शासकों के बारे में बताया जाता है की इन्होंने गोंडवाना लैंड में लगभग चौदह सौ वर्षों तक शासन किया। जादूराय (358ई.–363ई.) इस राजवंश के संस्थापक और प्रथम शासक थे और समीर शाह (1781ई.) इस वंश के अंतिम शासक हुए।

राजा संग्राम शाह

गढ़मंडला के गोंड राजवंश में सबसे पराक्रमी राजा कोई हुए तो वो थे गढ़मंडला के 48वें राजा, राजा संग्राम शाह जिन्होंने 52 किले जीते थे।

बताया जाता है की इनका वास्तविक नाम अमन दास/आम्हाण दास था लेकिन अपने पराक्रम के अनुरूप इन्होंने अपना नाम संग्राम शाह रख लिया।

पुत्र दलपत शाह के विवाह के एक वर्ष बाद 1543ई. में इनकी मृत्यु हो गई।

राजा दलपत शाह 

राजा संग्राम शाह की मृत्यु के पश्चात इनके ज्येष्ठ पुत्र राजकुमार दलपत शाह, गढ़मंडला राज्य के नए राजा बने(हालांकि इनका राज्याभिषेक 1530–32ई. के आस–पास ही हो गया था)। 

राजा बनने के दो वर्ष पश्चात रानी दुर्गावती से इन्हें एक पुत्र हुआ जिनका नाम इन्होंने वीर नारायण रखा (नोट: ये सोनाखान वाले वीर नारायण नहीं हैं)।

सन 1545ई. में शेरशाह सूरी ने जब कालिंजर किले पर हमला किया तब इन्होंने चंदेलों की मदद करी। शेरशाह सूरी जब कालिंजर किले पर बारूद के गोले फेंक रहे थे तभी एक गोला अचानक से इनके हाथों से छूट गया जिससे ये घायल हो गए और इनकी मृत्यु हो गई। 

समय बीतता गया, इसी बीच सन् 1550ई. में जब वीर नारायण महज़ पांच वर्ष के ही रहे होंगे, राजा दलपत शाह की मृत्यु हो गई और गढ़मंडल राज्य राजा विहीन हो गया।

रानी दुर्गावती

राजा दलपत शाह की मृत्यु के पश्चात गढ़मंडला राज्य राजा विहीन हो गया था, अगर लंबे समय तक राज्य की स्थिती ऐसी रहती तो राजगद्दी के लिए षडयंत्र शुरू हो जाता। 

ऐसी स्थिति में रानी दुर्गावती ने अपने सूझ–बूझ का परिचय देते हुए पांच वर्षीय बालक वीर नारायण को गद्दी पर बिठाया और उनकी ओर से राज्य का शासन सम्हाला। इस तरह से 1550ई. में ये गढ़मंडला की शासिका बनी।


रानी दुर्गावती का शासनकाल

रानी दुर्गावती ने 1550ई. में गढ़मंडला की कमान संभाली। इनके शासनकाल में गढ़मंडला और भी ताकतवर होने लगा। रानी ने बहुत से जनकल्याण के काम करवाए, सिंचाई के लिए तालाबों का निर्माण करवाया, मंदिरे बनवाई जिससे गढ़मंडल और भी समृद्ध होने लगा।


रानी दुर्गावती और बाज बहादुर खान का युद्ध 

बाज़ बहादुर खान जो कि मालवा का सुल्तान था, गढ़मंडला को स्त्री के हाथों में देखकर 1556ई. में इसपर हमला कर दिया।

रानी दुर्गावती के लिए ये एक बहुत बड़ी चुनौती और परीक्षा की घड़ी थी। रानी चाहती तो बहुत सारा खजाना लेकर जंगल की ओर भाग सकती थी या बाज बहादुर से संधी कर सकती थी लेकीन इन्होंने ऐसा नहीं किया, इन्होंने युद्ध का रास्ता चुना।

इस युद्ध में रानी दुर्गावती ने बाज़ बहादुर खान की ऐसी दुर्गती करी कि उसने गढ़मंडला की ओर दोबारा देखने की जुर्रत नहीं की। इस तरह से रानी दुर्गावती ने साबित किया की वो एक वीरांगना हैं जो मातृभूमि की रक्षा के लिए लड़ सकती हैं।


रानी दुर्गावती और अकबर की लड़ाई 

बेशक पिछली विजय बहुत बड़ी थी लेकिन कोई और भी था जो इन घटनाक्रमों को दूर से देख रहा था और गढ़मंडला को जीतने के लिए बिसातें बिछा रहा था। 
इसके लिए उसने चाल के तहत सबसे पहले मालवा और रीवा को हराया जिससे गढ़मंडला घिर गया। रानी दुर्गावती आने वाले खतरे को भांप गई और अपनी राजधानी सिंगौरगढ़ किले से चौरागढ़ किले ले गई। 

इस बार दुश्मन बहुत बड़ा था, उसकी सेना गढ़मंडला की सेना से बहुत ज्यादा बड़ी थी। वो दुश्मन कोई और नहीं बल्कि मुगलिया सल्तनत का बादशाह "जलालुद्दीन मोहम्मद अकबर" था जिसने रानी दुर्गावती पर अपनी अधीनता स्वीकारने के लिए दबाव बनाया। लेकिन रानी दुर्गावती झुकी नहीं और मुगल सल्तनत की अधीनता स्वीकारने से साफ़ मना कर दिया। 

रानी दुर्गावती के द्वारा मुगल सल्तनत की अधीनता न स्वीकारने के कारण अकबर ने अपने सेनापति असफ खान को गढ़मंडला पर चढ़ाई करने का आदेश दे दिया।
गढ़मंडला के मंत्री आधार सिंह ने मुगलों की शक्ति को भांपकर रानी दुर्गावती को सुझाव दिया कि वो इनसे संधी ले जिसपर रानी ने जवाब दिया कि "बिना स्वाभिमान के जीने से मौत बेहतर है।"

सन् 1564ई. में अकबर की मुग़ल सेना ने असफ ख़ान के नेतृत्व में गढ़मंडला पर हमला कर दिया। बताया जाता है कि उस समय गढ़मंडला के पास बीस हजार घुड़सवार, एक हज़ार हाथी और हजारों सैनिक थे; वहीं कुछ सूत्र यह भी बताते हैं कि गढ़मंडला के पास मात्र पांच हजार सैनिक थे। 

पहले दिन का युद्ध शुरू हुआ, कुछ समय पश्चात ही गढ़मंडला सेना के फौजदार अर्जुन दास वीरगति को प्राप्त हुए जिसके बाद रानी दुर्गावती ने सेना की कमान सम्हाली। 

पहले दिन के युद्ध में गढ़मंडला की सेना को मुगलों को पीछे धकेलने में सफ़लता मिली और बताया जाता है कि इस दिन रानी दुर्गावती ने अकेले तीन सौ मुगल सैनिकों को मार गिराया।

पहले दिन की सफ़लता के बाद शाम को दूसरे दिन के लिए रणनीति बनने लगी, सभी अपने–अपने सुझाव देने लगे। तभी रानी दुर्गावती ने अपनी रणनीति बताई, दरअसल रानी चाहती थी कि गढ़मंडल की सेना रात के अंधेरे में मुगलों पर अप्रत्याशित हमला(Surprise Attack) करे, ऐसा करने से मुगल सेना में भगदड़ मच जाती जिसका फायदा गढ़मंडल को होता।

लेकिन रानी दुर्गावती के मंत्रियों ने अंधेरे और पहाड़ी क्षेत्र का हवाला देते हुए इस रणनीति पर असहमति जताई और इस तरह से यह प्लान कैंसल हो गया।

अगले दिन मुगलों ने मजबूत रणनीति बनाकर दोगुनी सेना के साथ हमला कर दिया। इस युद्ध में रानी दुर्गावती के इकलौते पुत्र वीर नारायण भी लड़ रहे थे, इन्होंने मुगलों को कड़ी चुनौती दी और मुगल सेना को तीन बार पीछे धकेला। लेकिन तब तक ये घायल हो चुके थे, इनकी स्थिती को देखते हुए रानी दुर्गावती ने इन्हें किले की सुरक्षा में भेजा।

गढ़मंडल के पास अब गिनती के सैनिक बचे थे और रानी दुर्गावती अडिग होकर युद्ध लड़ रही थी, तभी दुश्मनों के दो तीर आकर रानी दुर्गावती को लगे, एक उनके कंधे और गले के पास लगा तो दूसरा उनके सिर और आंख के पास लगा। इस हमले के कारण रानी दुर्गावती बेहोश हो गई।
रानी दुर्गावती के हाथी "सरमन" के महावत ने इन्हें सुरक्षित स्थान पर निकाला, लेकिन जब तक इन्हें होश आया मुगल सेना जीत चुकी थी।


रानी दुर्गावती की मृत्यु 

अकबर ने रानी दुर्गावती को जीवित पकड़ने का आदेश दिया था। रानी के होश में आने के बाद इनके हाथी के महावत ने इनसे भाग जानें का अनुरोध किया जिससे इन्होंने साफ इंकार कर दिया। 

रानी दुर्गावती ने मंत्री आधार सिंह से कहा की वे उनका गला काट दें, जिसपर आधार सिंह ने माफ़ी मांगते हुए इसपर असमर्थता जताई। 

अंत में इन्होंने अपना खंजर निकाला और इसे अपने ही सीने पर उतार दिया, इस तरह से गढ़मंडला के लिए लड़ते हुए 24 जून 1564ई. के दिन जबलपुर के नरई नाला के पास वीरांगना रानी दुर्गावती वीरगति को प्राप्त हुईं।

अंततः अकबर का रानी दुर्गावती को जीवित पकड़ने सपना, सपना ही रह गया और रानी ने गर्व से मौत को गले लगाकर यह संदेश दे दिया की इनका स्वाभिमान, इनका आत्मसम्मान इन्हें अपने प्राणों से भी ज्यादा प्रिय हैं।


रानी दुर्गावती की मृत्यु के बाद गढ़मंडल की स्थिती 

रानी दुर्गावती ने घायल वीर नारायण को चौरागढ़ किले की सुरक्षा में भेजा था जहां ये सुरक्षित थे, लेकिन रानी की मृत्यु के दो महीने बाद ही मुगलों से लड़ते हुए ये भी शहीद हो गए।
 
बताया जाता है कि वीर नारायण को हराने के बाद असफ खान जब चौरागढ़ किले के अंदर गया तो वहां का नज़ारा देख सहम गया, दरअसल किले के लगभग सभी औरतों ने जौहर कर लिया था। सिर्फ़ दो औरतें बच गई थी जिन्हें अकबर के हरम में ले जाया गया।

"अकबर नामा" में अबू फजल लिखते हैं "गढ़ मंडल से इतनी धन–दौलत मिली की उसके एक हिस्से की गिनती करना भी नामुमकिन था" 

काफ़ी धन–दौलत लूटने के बाद मुगलों ने सिर्फ़ 10 किले अपने पास रखे और गढ़मंडल राज्य को वीर नारायण के चाचा चंद्रशाह को दे दिया। 
समीर शाह (1781ई.) गढ़मंडल राज्य के अंतिम गोंड शासक हुए, इनके बाद गढ़मंडल मराठों के अधीन चला गया और मराठों के बाद इसपर अंग्रेजों ने अधिकार किया।

"आज रानी दुर्गावती हम सबके लिए प्रेरणास्रोत है जिन्होंने विषम परिस्थिति में राज्य को सम्हाला और उसे समृद्ध किया। राज्य और स्वाभिमान की रक्षा के लिए कई गुना शक्तिशाली शत्रु से लोहा लिया और लड़ते हुए बलिदान दिया।"


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